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अमरनाथ धाम के तीर्थ यात्रियों के साथ सावन के पहले सोमवार को यह बारूदाना हरकत, दरअसल हरकत शब्द की परिधि को लांघकर हथकंडा (legerdemain) हो गयी है। अभी तक की वारदात (war crimes) का उद्देश्य भी आम लोगों के अमन चैन को भंग करके और व्यवस्था पर जमे उनके विश्वास को खंडित करना था। यह किसी भी देश की सरकार को कमजोर करने का पारंपरिक युद्ध कौशल है। उनके दुर्भाग्य से जनता का भरोसा कायम रहा और वे तिलमिलाते रहे।
ये लोग अपने इष्ट पर भक्ति और श्रद्धा की अभिव्यक्ति के लिए यात्रा पर थे। अपने जीवन के सबसे मासूम तथा ईमानदार अंदाज़ में। कठमुल्लेपन ने भक्ति व पूजा पद्धति के पैमाने पर एक ही नस्ल में श्रेष्ठता को कम तथा ज्यादा में बांट रखा है। यह हमारी सैकड़ों वर्षों की बीमारी है, जिसकी वजह कमजोरी है। यह कमजोरी है, हमारी अधपकी विवेकशीलता (immatured discrimination)। एक से दो देश बनने का एतिहासिक सबक हम पढ़ना नहीं चाहते | पर एतिहासिक सबक मिटा नहीं करते। इस सबक की हमारी कमजोर याददाश्त पर इस बार आतंकियों ने ‘मास्टर स्ट्रोक’ लगाया है। उन्हें यकीन है कि इस वार से आपस की समरसता बिखरेगी।
युद्ध का एक आजमाया नुस्खा है कि जनता में बेचैनी-हताशा जनता का विश्वास तोड़ती है और जनता में आक्रोश-उपद्रव सरकार का विश्वास तोड़ते हैं। दोनों स्थितियों में सरकार कमजोर होती है, जो युद्ध का अभीष्ट होता है |
इस हमले के बाद जिम्मेदार लोगों के बयानों का हवाला एक अखबार के सम्पादकीय के अनुसार
मीरवाईज़ साहब– तीर्थ यात्री हमेशा हमारे मेहमान रहे हैं और रहेंगें।
भावार्थ- अतिथि देवो भव: ।सधा राजनयिक संवाद।
महबूबा मुफ्ती जी- आज हर कश्मीरी का सिर शर्म से झुक गया है।
भावार्थ- “कश्मीरी” लफ्ज़ मुख्यमंत्री की हैसियत से कोई अन्य मंशा नहीं दर्शाता। गठबंधन के दबाव से मुक्त एक जिम्मेदारी पूर्ण वक्तव्य लगता है।
मोदी जी- कश्मीरियत पर हमला।
भावार्थ- यह जुमला या तो सम्पादकीय में बिना सन्दर्भों के दिया जाना या हड़बडी या किसी अन्य कारण से अधूरा प्रतीत होता है।
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भारतीयता को यदि एक पोर्ट्रेट मानें, तो कश्मीरी या मलयाली सिर्फ रंग माना जा सकता हैं, स्वतंत्र पोर्ट्रेट नहीं। “कश्मीरी रंग पर हमला है” यह वाक्य फिर भी सन्दर्भ के अनुकूल है। बेशक कश्मीरी शब्द मात्र को भी उसी आशय कश्मीरी रंग के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन साथ में जब कश्मीर की मुख्यमंत्री और वहां के अलगाववादियों के उद्घोष भी हों, तो ‘कश्मीरी’ शब्द के मायने सिर्फ उस प्रांत तक ही सीमित हो रहे हैं।
यह सावधानी इसलिए भी आवश्यक है कि यह समय अपने उपयोग या दुरुपयोग की मांग कर रहा है। समय अर्थात सत्तर वर्षों का काल खंड। अमेरिका और रूस का वैमनस्य तिरोहित हो गया। ईस्ट जर्मनी और वेस्ट जर्मनी के बीच की दीवार ढह गयी। जापान पर परमाणु बम से नर संहार के लिए अमेरिका ने खेद प्रकट कर दिया। वियतनाम तथा अमेरिका परस्पर शांत हैं। शेखर गुप्ता जी के अंदाज़ में कहूं, तो साठ साल में बदले विश्व में न तो हमारे शत्रु बदले न हमारी शत्रुता बदली और न हमारी प्रतिक्रिया बदली है।
हमारी सेना के माननीय जनरल विपिन रावत कहते हैं कि उनकी सेना ढाई मोर्चों (पाक, चीन और अंदरुनी चुनौतियां) पर एक साथ लड़ने के काबिल है। यह एक विश्वसनीय आश्वासन है। हमारा सौभाग्य भी कि हम उत्तरदायी योद्धाओं की देखरेख में हैं। सवाल उठता है कि यह जो आधा मोर्चा है, अंदरूनी चुनौतियों का, कहीं इसे हम “आधे” से बढ़ाकर “पौना” न कर दें। मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि भारतीय हज़ यात्रियों की सुरक्षा के साथ कोई खिलवाड़ इन आतताइयों का अगला हथकंडा ना हो?
आतंकवादी रहनुमाई के अपने कयास हैं कि भारत में फिलहाल सामूदायिक विद्वेष उस बिंदु पर है, जब कौमी फसाद हो जाना बहुत आसान है। युद्ध वस्तुत: उनका एजेंडा है, जो वे लोग भारतीय जनता की प्राथमिकता में शीर्ष पर सरकाना चाहते हैं।
ताकतवर देश के बारे में मेरा सही नजरिया आज यह है कि जो देश होते हुए युद्ध को या चल रहे युद्ध को अपने प्रभाव मात्र से जब चाहे तब रोक दे, वही ताकतवर देश हो सकता है, फिर चाहे वह युद्ध में शामिल हो या नहीं। मेरा अपना निष्कर्ष है, “fittest will survive” यह एक बर्बर अवैज्ञानिक दृष्टि है। मेरा अपना निर्णय है “ kindest will survive” इस पर मेरी विवेकपूर्ण दृढ आस्था है। दयालु होने के लिए असीम शक्ति की आवश्यकता होती है।
राजनीतिक दलों की युद्ध के ओर झुकाव की प्रवृत्ति नई नहीं है। इससे मतों का ध्रुवीकरण होता है। अगली जीत सुनिश्चित करने में मदद मिलती है। युद्ध में जीत हो या हार, दोनों परिणामों को चुनाव में अपनी जीत के लिए अपना उपकरण बनाने में सिद्ध हस्त होना उनका कौशल है। यह टिप्पणी समूची दुनिया पर है। आतंकवादी नेतृत्व तक यह बात साफ़ पहुंचनी चाहिए कि “भारतीयता” ने अपने श्रुति-स्मृति के स्मरण बोध में कभी न मिटने वाली स्याही से दर्ज कर रखा है कि बर्फानी बाबा अमरनाथ तक दोबारा भक्तों को ले जाने वाले बाबा बूटा मलिक हैं।
इस मुस्लिम बुजुर्गवार बाबा बूटा मलिक ने सन 1850 में अमरनाथ गुफा की खोज की थी। इन्हीं बुजुर्ग की पीढ़ी दर पीढ़ी ने अभी श्राइन बोर्ड बनाने से पहले तक दशनामी अखाड़े के साथ मिलकर समस्त देश से आने वाले तीर्थ यात्रियों की अपने इंतज़ाम से सेवा की है और त्रिशूल के प्रति जन श्रद्धा को छड़ी मुबारक में अंतरित किया।
मेरी अपनी कल्पना का यह ठोस यथार्थ है कि हमारे यहां की समाधियां तथा मजारें अनगिनत मंदिरों एवं मस्जिदों के बीच सेतु का काम करती हैं। इसी सेतु की सतह पर से नानक, कबीर, रहीम, रसखान, खुसरो और गांधी ने भारत की ज़मीन और आसमान को बनाया है। आज लेखन, मीडिया तथा कला की सभी अभिव्यक्तियों का उत्तरदायित्व है कि युद्ध से सिद्ध करने की मानसिकता का निषेध करें, बल्कि युद्ध में भी विजयश्री हासिल कर हम यह सिद्ध करेंगें कि युद्ध आज निषिद्ध है |
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इस आलेख में केवल संक्षिप्त सरोकारी आशय या प्रयोजन हैं। प्रत्येक आशय एक विस्तृत विवेचना चाहता है पर इस स्थान पर यह व्यवहार्य नहीं है। इसका एक धारावाहिक आप पाठक अपने मन में स्वयं बनाएं और विचार करें। देश की परिस्थितियां आपकी आभारी रहेंगी |
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