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स्त्री, प्रजातंत्र और भारत

सुनो दोस्तों
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स्त्री, प्रजातंत्र और भारत

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19-20-21 वीं सदियों को भविष्य में ऐतिहासिक तौर पर देखा जाएगा तो दिशा बदलने वाले किरदारों के रूप में आईंस्टीन, फ्रायड जुंग, कार्ल मार्क्स, महात्मा गांधी, सिमोन द बुवा के प्रति संसार सदा आभारी रहेगा |

नारी विमर्श तो बिना सिमोन द बुवा के न शुरू हो सकता है और न ख़त्म | वे कहती हैं – “देह वस्तु नहीं है, यह एक स्थिति है; यह दुनिया पर हमारी पकड़ है और हमारी तर्कसंगत कल्पनाओं का खाका है | The body is not a thing, it is a situation: it is our grasp on the world and our sketch of our project.”

यहाँ यह समझ लेना जरूरी लगता है कि स्थिति (सिच्युएशन) बाहरी कारकों के कारण बनती है, परिस्थिति (कंडीशन) आतंरिक कारकों से तथा अवस्था (स्टेट) कारकों की अभ्यस्तता व टिकाउपन पर निर्भर करती है |

उनका अत्यंत व्यापक अर्थवाला और उतना ही जमीनी सच्चाई को दिखाता एक कथन है –“कोई जन्म से स्त्री नहीं है बल्कि हो जाती है | One is not born, but rather becomes, a woman.”

मैं इसे नारी पर आधुनिक समय की सबसे बुलंद टिप्पणी मानता हूँ | अनुवांशिकता तथा परिवेश के परस्पर संबंध पर सिमोन की स्त्री के सन्दर्भ में यह निजी पड़ताल है, जो भोगे और जिये गए अनुभवों पर आधारित है | इस टिप्पणी की बड़ी बात यह है कि इसकी व्यापकता में दुनिया की तमाम स्त्रियाँ समाहित है |

हमारे देश में मध्यकाल के पहले जितना पीछे जाएँ , स्त्री की हैसियत उतनी सशक्त और प्रभावशाली पाई जाती है | हमारे सुसंस्कृत होने के आदि इतिहास की अत्यंत सशक्त टिप्पणी है-

“ यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।”

(जहां नारी का सम्मान होता है, आदर होता है, वहां देवता मुदित होकर घूमते हैं | जहां उन्हें सत्कार नहीं मिलता, वहां संपन्न कार्य निष्फल होते हैं |)

इस ॠचा में प्रयुक्त शब्द “नारी” तथा “पूज्य” बतलाने में समर्थ हैं कि तत्कालीन समाज में क्या घटित हो रहा था | पहली बात “पूज्य” का आशय रस्म रिवाज़ वाली धार्मिक पूजा करने से नहीं है | पूजा करना यानि सतत आदर एवं श्रृद्धा का भाव मन में बनाए रखना | उस समय देवता, गुरु, विद्वान्, राजा, योद्धा, सम्मान के पात्र थे और इनके प्रति सतत श्रृद्धा सम्मान तत्कालीन समाज का संस्कार था | इसी वर्ग (श्रेणी) में नारी का सुनिश्चित पूज्यनीय स्थान उस समाज में नारी की समाज पर पकड़ तथा लोगों द्वारा नारी की मान्यता को दर्शाता है | एक सामान्य आदमी को देवता, गुरु, विद्वान्, राजा, योद्धा होने के जितने अवसर थे , एक स्त्री के पास भी देवता, गुरु, विद्वान्, राजा, योद्धा होने के ठीक उतने ही मौके थे |

इस प्रकार सिमोन द बुवा का यह कथन समाज में नारी की स्थिति को समझने के लिए आश्वस्त करता है कि “देह वस्तु नहीं है, यह एक स्थिति है; यह दुनिया पर हमारी पकड़ है और हमारी तर्कसंगत कल्पनाओं का खाका है | The body is not a thing, it is a situation: it is our grasp on the world and our sketch of our project..”

मुझे अपने तौर पर भारतीय मानस के अतीत में स्त्री पुरुष संबंधों के आदर्श मानक शेष दुनिया के मानकों से बेहतर लगते हैं | उदाहरण के लिए हमारे यहाँ “नारी” पूजा के शिखर  तक गयी है, पूजा करना यानि सतत आदर एवं श्रृद्धा का भाव मन में बनाए रखना | इसी के समकक्ष पश्चिमी समाज में “लेडी” भद्रता की ऊँचाई तक पहुँची है, जहां भद्रता शील व शिष्टाचार की परिचायक या सूचक है | पूजनीयता मुझे भद्रता से अधिक गहरी, व्यापक तथा विशिष्ट लगती है |

एक आयाम विशेष में ऐसा लगता है कि भारतीय मानस स्त्री को समग्रता में देखता है | कितने विशिष्ट रिश्ते हैं, माँ, बहन, दादी, नानी, पत्नि के अतिरिक्त मौसी, बुआ, मामी, भाभी, भांजी, भतीजी, साली, सलहज, चाची, काकी, पोती, नातिन आदि आदि | आदर तथा वात्सल्य के अनेकानेक कोण | हरेक रिश्ते में हर उम्र की स्त्री से जुड़ना उस स्त्री विशेष के सापेक्ष अपनी स्थिति निर्धारित करना है जो हम अपने परिवेश में सहज ढंग से करते चलते हैं | पश्चिमी समाज में नारी से रिश्तों के इतने नाम ही नहीं है | वहां स्त्री से पुरुष के रिश्ते में उतनी मुद्राएँ उतनी भंगिमाएं नहीं है अर्थात पुरुष को खुद को जाहिर करने के उतने मौके नहीं है |

मेरा ऐसा सोचना है कि एक मानव इकाई के दूसरों से जितने अधिक रिश्ते हैं, सम्बन्ध हैं, उतना ही दायित्व और कर्तव्य का दायरा तो विस्तृत होता ही है परन्तु खुद को अभिव्यक्त करने के अवसर तथा संभावनाएं भी उतनी अधिक होती हैं | अभिव्यक्ति के अवसर तथा अभिव्यक्ति की संभावनाएं ही कुल मिलाकर अभिव्यक्ति की आज़ादी है | नई पीढी देह सुख के दायरे में स्त्री को इसलिए आंकती है क्यों कि मनुष्य (ह्युमन बींग) और जिन्स (कमोडिटी) का सम्बन्ध इस काल में नया रूपाकार ले रहा है |

मनुष्य और वस्तु के बीच के सम्बन्ध के आकार में अभी जिन घटकों पर गौर करना है, वे हैं – 1. वस्तु का यह गुण कि वह एक समय बाद ख़त्म हो कर कबाड़ हो जाती है | 2. उसके अपने उपयोग काल में उसकी गुणवत्ता गिरती जाती है | 3. वह अपने उपयोग या दुरुपयोग का विरोध नहीं करती, बंद हो सकती है या ख़त्म हो सकती है |

जबकि मनुष्य व स्त्री के सम्बन्ध में – 1. वे कभी कबाड़ नहीं होते | 2. उनके अपने कायिक काल में स्मृति में दर्ज भावनात्मक राग अनुराग व्यावहारिक अनुभव उनकी गुणवत्ता होती है जो ?  | 3. वे स्वत: अभिव्यक्त हैं तथा मानव प्रजाति का यह गुण “अभिव्यक्ति” सतत चलने वाली प्रक्रिया है |

स्त्री पुरुष सम्बन्ध में “जिस्मानी और रूहानी” दो आग्रहों की जबरदस्त भूमिका रही है | कायिक (सोमेटिक)इस पर हुई बातों का दोहराव गैर जरूरी है | इतना जरूर कहूँगा कि स्त्री के बारे में “वीकर जेंडर” की अवधारणा (या “सहायक दर्जे की मानवी इकाई” का सिद्धांत) उतनी ही भ्रामक है जितना किसी जमाने में माना जाता था कि “सूर्य पृथ्वी के चक्कर लगाता है” | इसका प्रमाण है- स्त्री व पुरुष दोनों के शरीर पर “नाभि” के रूप में एक दिव्यांग का होना | यह कुदरत का लेबल है हरेक की काया पर कि आप स्त्री के कर्ज़दार है, आप उसकी सहायक इकाई है वह आपकी नहीं | वह अपने भीतर तथा बाहर अपने से अभिन्न और भिन्न दोनों को समभाव से पालती है | झुंझलाकर पर ईमानदारी से ये कहा जा सकता है कि यदि कोई “वीकर जेंडर” है तो वह पुरुष है ना कि स्त्री |

दूसरी चुनौती है – “समानता” की स्त्री के सामने |

दरअसल, बोलचाल में समान, सरीखा, बराबर, समरूप, एकरूप, एकसा, एक जैसा, समतुल्य, एक समान आदि आदि शब्द लगभग एक भावअर्थ में बोले समझे जाते हैं | मानवीय व्यवस्था में स्त्री पुरुष के समान कहने के पीछे नीयत होती है कि स्त्री पुरुष को इस व्यवस्था, इस ताने बाने को सम्हालने, इसे और विकसित करने के एक समान मौके हैं | इस तंत्र में दोनों की एक सी भागीदारी है | दर्शन, कला, साहित्य, विज्ञान, राजनीति, उद्योग-व्यापार, प्रबंधन तथा खेती अर्थात सभी प्रकार के श्रम एवं श्रेय में समतुल्य सहभागिता |

दोनों के लिये बराबर बराबर अवसर उपलब्ध होने के रास्ते में रुकावट बनता है – पुरुषपन तथा स्त्रीपन | जिसे मैं पुरुषपन स्त्रीपन कह रहा हूँ , यह नर और मादा होने से एकदम भिन्न बात है क्यों कि नर मादा होना शुद्ध रूप से नैसर्गिक कुदरती घटना है |

अभी पुरुषपन, मर्दानगी की विकृत दिखावट हो गयी है – समस्त अनुमति इजाजत आदेश हुक्म प्रतिबन्ध निषेध को नाजायज तौर पर अपने कब्जे में रखना | “करो – मत करो” के अधिकार को अवैध तरीके से अपने पास रखना | स्त्रीपन और ज्यादा खतरनाक है, स्त्रीपन है – “करो – मत करो” की उस पुरुष छाप सोच को जस का तस मान लेना |

देश आज़ाद होने के बाद एक भारतीय के संबंधों ने एक लम्बी यात्रा तय की है | सम्बन्ध में जुड़ाव, लगाव तथा रूझान की भूमिका को समझे बगैर स्त्री की त्रासदी और विरोध को समझना कठिन है | असल में रुझान यानि उस ओर आकर्षित होना, लगाव मतलब सट जाना और जुड़ाव अर्थात चिपक जाना | पूरे देश ने शुरू में आदर्शवाद को ही प्राथमिकता दी, इससे मोहभंग होने से वह गुस्से बनाम आक्रोश की मुद्रा में आया और अब वह सैद्धांतिक उदासीनता की लाचारी के सामने खड़ा है |

“वीकर जेंडर” तथा “समानता” के बाद तीसरी चुनौती भारतीय स्त्री के सामने है – “पुरुष की हीन-भावना मनोग्रंथि” |

कमोबेश देश में सामाजिक दुनिया के हर क्षेत्र में स्त्री की उपस्थिति दर्ज हो रही है | यह खानापूर्ति जैसा नहीं घट रहा है बल्कि स्त्री की प्रतिभा की अवसरों पर कामयाबी है | विडम्बना है कि भारतीय समाज का तानाबाना बुनने वाले लोगों में उन पुरुषों की संख्या बहत अधिक है जो स्त्री को अपनी सहायक इकाई मानते हैं | ये लोग स्त्री की सफलता के सामने अपनी अयोग्यता अपनी अपात्रता अपनी मेधा की छोटी पहुँच को बड़ी शिद्दत के साथ महसूस तो करते हैं पर इसे जाहिर और स्वीकार करने में अपना अपमान समझते हैं | ये सफल नारी की तुलना में अपनी हीनता को बाकायदे चिन्हांकित रेखांकित कर लेते हैं पर इस विश्लेषण को देश के भवितव्य (फ्यूचर) के विकास का ना नक्शा बना पाते हैं ना साधन | ऐसा करने के लिए जिस हिम्मत की जरूरत होती है, वह सैद्धांतिक उदासीनता से ग्रस्त इन लोगों में नहीं है |

यह कारण और कारकों की आंशिक और संक्षिप्त छानबीन है पर स्त्री को अपनी भूमिका के आकलन में मदद कर सकती है |

बस हम सब स्मरण रखें – “कोई जन्म से स्त्री नहीं है बल्कि हो जाती है | One is not born, but rather becomes, a woman.”

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