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चुगलखोर पड़ोसन
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मेरी कविता आज के वक़्त की चुगलखोर पड़ोसन है |
वक़्त के घर पर बारीक नज़र रखती है,
कौन आया कौन गया सबकी खबर रखती है ,
वक़्त तो ध्यान मग्न रहता है,
उसे मतलब नहीं
उसके घर में
कौन कपड़ों में और कौन नग्न रहता है |
दरअसल
वक़्त अनोखा रईस है |
मेरे आपके अंदाजे से तो बहुत बड़ा |
उसका घर बहुत क्या बहुत बहुत बड़ा है |
उस बहुत बड़े रईस ने अपना बहुत बड़ा घर
शब्दों को सराय की तरह इस्तेमाल के लिए दिया हुआ है |
यहाँ शब्द आते हैं, रहते हैं
मेरी कविता तो कहती है
नहाते भी हैं , धोते भी हैं |
फिर निकलते हैं बन-ठनकर
कोई विज्ञापन के होर्डिंग पर टैगलाईन बनकर छपने के लिए निकलता है,
कोई ‘राज’-‘नैतिक’ पार्टी में नारा बनकर खपने के लिए निकलता है |
आजकल गालीनुमा या औसत शब्दों की खूब पूंछ परख है,
ये अपनी पूरी सज-धज के साथ निकलते हैं
सोशल मीडिया, वयस्क फिल्मों की ओर |
कुछ शब्द दुधारी होते हैं दोनों तरफ धारवाले,
घड़ी में शब्द घड़ी में अपशब्द
ये निकल पड़ते हैं ठाट-बाट के साथ
इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के गलियारों में
जहां इन्हें हाथोहाथ ले लिया जाता है
मीडिया चेनल लजाते नहीं तथा अखबार चेनल अघाते नहीं |
फिर कुछ यतीम लावारिस बेरोजगार शब्द बच जाते हैं,
जो हाथ बांधकर चुपचाप खड़े हो जाते हैं ,
ये हमारे दोस्त हैं,
हमारी तल्खी बेचैनी में ये ही काम आते हैं ,
हमारी कविता में समां जाते हैं |
हम वो लिखने वाले हैं,
जिनको पढ़ने वाले
यार दोस्त फेसबुक या वाट्सऐप पर पाए जाते हैं |
आप पूछेंगें, कविता चुगलखोर कैसे ?
भैया,
रेल का डिब्बा हो, पान का खोका हो, जिम हो, ब्यूटी पार्लर हो
किटी, बर्थ डे, एनिवर्सरी हो, बस जहां लोग चार हो,
यह वक़्त के घर की,
राई राई रत्ती रत्ती पूरी आंखन देखी
रस ले लेकर बतलाती है
डरती नहीं अगर चुगलखोर कहलाती है |
वक़्त ध्यान से बाहर आता है तो
चुगलखोर पड़ोसन से बात करता है , उसके घर के बाहर आ कर |
वो घर में इसे ले जाने के लिए मनाता है,
इसका जवाब होता है—
“मैं पार्टी, पोलिटिक्स या फिलोस्फी के लिए नहीं बनी हूँ ,
तुम्हारा घर भी मेरे लिए छोटा पड़ेगा, मेरे ब्वाय फ्रेंड के कलम में इतनी जगह है,
तुम्हारे जैसों के कई के घर बन सकते हैं |”
ये चुगलखोर मुझे ब्वायफ्रेंड कहती है |
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