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संविधान के साथ हम और गणतंत्र दिवस
सुशासन (गुड गवर्नेस) पर चीन के राजा ली-वांग के ये वाक्य अनमोल हैं-“कवि कवितायें लिखने के लिए स्वतंत्र हों, लोग नाटक खेलने के लिए, इतिहासकार सच बताने के लिए, मंत्री सलाह देने के लिए, गरीब करों (टैक्सेज) पर बड़बड़ाने के लिए, छात्र तेज स्वरों में पाठ याद करने के लिए, कारीगर काम ढूँढने और अपने काम की प्रशंसा करने के लिए, लोग कुछ भी कहने के लिए और बूढ़े हर बात में दोष निकालने के लिए स्वतंत्र हों |” (अहा ! जिन्दगी से साभार ) | (845 ईसा पूर्व)
हमारे देश में शासन पद्धति पर प्राचीन सुलभ ग्रन्थ “अर्थशास्त्र” है | समय लगभग 321-289 ईसा पूर्व |
इस पुस्तक की शुरुआती बात है –
“पृथिव्या लाभे पालने च यावन्त्यर्थशास्त्राणि पूर्वाचार्ये: प्रस्तावितानि प्रायश: तानि संहत्य एकमिदमर्थशास्त्र कृतम् |”
प्राचीन आचार्यों ने पृथ्वी जीतने और पालन के उपाय बतलाने वाले जितने भी अर्थशास्त्र लिखें हैं, प्राय; उन सबका सार लेकर इस एक अर्थशास्त्र का निर्माण किया गया है |
अर्थशास्त्र नाम होने से इस भ्रम से बचना जरूरी है कि इसमें सिर्फ आर्थिक विचार और आर्थिक सुझाव, आर्थिक समीकरण और आर्थिक निराकरण की बात है | यह शासन विधि पर मौजूद प्राचीन प्रामाणिक ग्रन्थ है | देश के शासक द्वारा देश के भीतर और सीमा पार उसके आचरण पर मार्गदर्शी दस्तावेज |
ग्रंथकार कौटिल्य है, आर्थिक विचारों के शिखर पुरुष | चाणक्य नीति- रचनाकार चाणक्य, राजनीतिक विचारों के शिखर पुरुष | पंचतंत्र- कथाकार विष्णु गुप्त, लोक व्यवहार पर किस्सागोई के शिखर पुरुष | ये तीन अलग अलग नाम पर आदमी एक ही है |
इस समय सुशासन के प्रसंग में हमारा फोकस कौटिल्य के अर्थशास्त्र पर है |
कौटिल्य सुशासन की स्थापना करते हैं –
“प्रजा सुखे सुखं राज्ञः प्रजानाम् च हिते हितम् |
नात्मप्रियम् प्रियं राज्ञः प्रजानाम् तु प्रियं प्रियम् || ”(1/19)
प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में उसका हित है | राजा का अपना प्रिय(स्वार्थ) कुछ नहीं है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है |
राजा वी-लांग तथा आचार्य कौटिल्य राज्य प्रबंधन के मुद्दे पर हमशक्ल और हमअक्ल हो जाते हैं |
भरोसा पक्का हो जाता है कि राज्य प्रबंधन क्रिया का लक्ष्य ही सुशासन है |
भारतीय संविधान की प्रस्तावना पर नज़र डालिए | नज़र डालकर कहीं जल्दी में निकल मत जाईये, इस प्रस्तावना को नज़रों में बसा लीजिये |“जन गण मन” की तरह कंठस्थ कर लीजिये |
“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा
उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतदद्वारा
इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।“
यह प्रस्तावना संविधान का अविछिन्न भाग है (सर्वोच्च न्यायालय – केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य 1973) |
1.सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न (SOVEREIGN ): अंग्रेजी का शब्द “सॉवरेन” जिसका हिंदी अनुवाद सम्पूर्ण प्रभुत्व किया गया है | “सॉवरेन” के डिक्शनरी में कई अर्थ हैं, यहाँ यह “सार्वभौम (ग्लोबल)” तथा “स्वयम का मालिक (प्रभु) स्वयम” के भावार्थ में प्रयुक्त हुआ है |
2.समाजवादी (SOCIALIST): अंग्रेजी का शब्द “सोशलिस्ट” जिसका हिंदी अनुवाद समाजवादी किया गया है | आर्थिक तथा सामाजिक व्यवस्था का वह सीमा क्षेत्र जिसमें उत्पादन के साधनों पर लोकतांत्रिक नियंत्रण तथा सामाजिक स्वामित्व हो , वह समाजवाद कहलाता है | इस पर आस्था रखने वाले को समाजवादी कहते हैं | इस व्यवस्था में कामगार को उत्पादन से हुई आय में उसके श्रम के अनुसार हिस्सा मिलता है, आय में अंतर की खाई मिटती है |
3.धर्मनिरपेक्ष (SECULAR): “सेक्युलर” यानि धर्म से तटस्थ | हमारे देश द्वारा लिए गए फैसलों का आधार ना तो धर्म से लगाव होगा ना तो धर्म से दुराव होगा |
4.लोकतंत्रात्मक गणराज्य (DEMOCRATIC REPUBLIC): “डेमोक्रेसी”, जनता(पब्लिक) की व्यवस्था होती है |”रिपब्लिक”, जनता (पब्लिक) द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों की व्यवस्था होती है |
देश के अतीत के अच्छे बुरे अनुभवों से हमने अपनी एक समझ विकसित की है, जिस समझ के धरातल पर एक राष्ट्र के रूप में रहने और चलने की हिम्मत दिखाई है |
हमारी यह समझ कहती है कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता को मज़बूत करने के लिए संविधान के रूप में हमने अपनी एक आचार संहिता तैयार की है और स्वेच्छा से उसे अपने आप को अर्पित किया है |
सुशासन के लिए हमारे विश्वास और आस्थायें हमारे धार्मिक श्रुतियों तथा परम्पराओं में निहित थीं |चाहे “राम राज्य” का आदर्श हो या “विदुर नीति” या “कौटिल्य का अर्थशास्त्र” आदि आदि | राजा को तैयारी(शिक्षा-दीक्षा) की जरुरत थी, प्रजा को नियम पालन के लिए सिर्फ अनुयायी की मानसिकता ही काफी थी, व्यवस्था में किसी बदलाव के लिए सामान्य नागरिक(प्रजा) के पास कोई वैधानिक अधिकार नहीं थे , व्यवस्था के प्रति कर्तव्य ही व्यवस्था से उसका एक मात्र जुड़ाव था |
परन्तु आज नितांत बदली हुई शासनिक और प्रशासनिक परिस्थितियों में देश अब एक लोकतंत्रात्मक गणराज्य है | नागरिक खुद राजा(मालिक) की भूमिका में है, इस व्यवस्था को बेहतर से बेहतर बनाने के कानूनी अधिकार उसके पास हैं |
26 जनवरी 1950 को जो हुआ, वह हैरतअंगेज़ भी है और दिलचस्प भी | अपने आप को मथना और अपने आप को आगे बढ़ाना इन दोनों को मिलाकर हमारा स्वतंत्रता आन्दोलन बना | 1. अपने आप को मथने की क्रिया में जात पात से छुटकारा, धार्मिकता के कारण बंटे लोगों को एक करना, रोजगार की दृष्टि से खेती-किसानी और कुटीर / देहात के उद्योगों को पेट “पलने” की दशा से पेट “पालने” की दिशा में लाना, शिक्षा का भेदभाव रहित फैलाव, सत्ता प्रणाली को जनोन्मुखी बनाना और बहुत कुछ |
यह हमारा खुद अपनी कमियों के खिलाफ आन्दोलन था |
2. अपने आप को आगे बढ़ाना इस प्रक्रिया में ब्रिटिश सत्ता से मुक्त हो कर भारतीय सत्ता कायम करना, अपनी कमजोरियों तथा अड़चनों को हटाने के लिए खुद अपने नियम अपनी प्रणाली अपनी योजनाये बनाने का अधिकार हासिल करना आदि इत्यादि | यह हमारा ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध आन्दोलन था |
ये दो घटक मिलकर ही हमारा समूचा स्वतंत्रता आन्दोलन होता है |
15 अगस्त 1947 से 26 जनवरी 1950 के बीच के समय में विचार करने के लिए सामने दो विचार धाराएं थीं, 1. अंतिम आदमी तक पहुँचने का विचार और नीति जिसके अगुआ गांधी थे | यह “पंचायती राज” का रास्ता था, जहां गाँव शहर अपनी आवश्यकताओं के अनुसार योजना बनाते | यह अपने समय का इतना उर्जावान विचार था, जिसने कल्पना से परे लोगों को कांग्रेस से जोड़े रखा था |इस विचार की आवश्यक शर्त है सत्ता का विकेंद्रीकरण | जाति तथा वर्ण की तंगदिली (संकीर्णता) का डर सत्ता में पूरे गाँव की साझेदारी पर शंका का कारण बना इसलिए यह विचार संविधान निर्माण के केंद्र में नहीं आ सका | 2. दूसरा विचार था – एकात्मक संघीय ढांचा | अधिकतम अधिकारों से सज्जित केंद्र, जो अपने विवेक से योजनायें बनाकर शहरों और गाँव तक पहुंचाने का काम करता | इसके गुण धर्मों का प्रचार सामान्य जनता में उस समय नहीं था | इस प्रणाली की आवश्यक शर्त है – सत्ता का केन्द्रीकरण | इस विचार के पक्ष हुए – नेहरू, सरदार पटेल और आम्बेडकर | परन्तु शिक्षा और अभावग्रस्त देश के तेजी से विकास के लिए इस मॉडल को चुनने के लिए उस समय के लोगों के विवेक पर सवाल उठाना हमारी जल्दबाजी होगी |
दोहराया जाता है कि 26 जनवरी 1950 को जो हुआ, वह हैरतअंगेज़ भी है और दिलचस्प भी, क्यों कि पंचायत के रूप में गाँव के आदमी को अधिकार और चुने प्रतिनिधि तथा ब्यूरोक्रेट पर अंकुश का आम आदमी को हक उस समय संविधान से गायब रहा | आर टी आई (सूचना का अधिकार), आर टी ई (शिक्षा का अधिकार ), नोटा (उपर्युक्त में से कोई नहीं) अन्य कई उदाहरण हैं जिनसे आदमी की सत्ता में भागीदारी बढ़ी है | “किसी को नहीं चुनना” तो ठीक है, पर “चुने हुए को वापिस बुलाना” यह अधिकार भी आज नागरिक को चाहिए अर्थात आर टी आर (राईट टू रिकाल ) |
इस संविधान का आलेखन निस्संदेह अद्वितीय है | इसमें संशोधनों से यह हमें रोकता नहीं है, यह इसकी वह विशिष्टता है जो इसे सभी आचार संहिताओं से ऊपर और व्यापक तथा प्रत्येक व्यक्ति की छतरी एवं दीपक बनाती है |
इस संविधान को ठेस पहुंचाते हुए हम तब दिखाई देने लगते हैं जब कुछ मुद्दों पर सोचते हैं, चर्चा करते हैं , मोटे तौर पर धर्म, परम्पराएं, राजनीति और रोजगार – समृद्धि |
धर्म :- यह ईश्वर पर विश्वास का एक तरीका है | मेरा अलग आपका अलग | हम को कुछ चीजें पैदायशी मिलती हैं, जैसे रंग रूप, कद काठी, पर जाति(सिर्फ भारत में),आर्थिक हैसियत और धर्म मढ़ दिए जाते हैं, पैदा होने वाले के बगैर जानकारी के | ये चीजें हमारी मिहनत और प्रतिभा से प्राप्त नहीं हुई हैं | जो चीजें हमने अपने श्रम से अर्जित नहीं की, उन पर इतराना कितना वाजिब है, आप बतलाईये | नितांत आर्यकालीन विचार में चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में धर्म को स्थान मिला है | ये चारों, व्यक्ति द्वारा सप्रयास पराक्रम द्वारा चुनकर प्राप्त की गयी उपलब्धियां हैं | वह धर्म जिसके लिए आप मारने के लिए उतारू हैं , क्या आपका अपनी मिहनत से कमाया पुरुषार्थ है ? या आप पर मढ़ा एक ठप्पा जिसका क ख ग भी आपको मालूम नहीं ? फिर किस धर्म के लिए यह मारामारी है, पुरुषार्थ वाला या ठप्पे वाला ?ईश्वर पर विश्वास और प्रेम आपका नीजि और गोपनीय भी हो सकता है और खुल्लमखुल्ला भी , इसे संविधान के सामने चुनौती बनाना गलती है |
परंपरा :- परंपरा, वे नीति नियम जिन पर एक खुले समाज में पुनर्विचार और बहस की जरूरत प्रकट नहीं होती और ये मजबूरी नहीं उल्हास का एहसास करवाते हैं अन्यथा वे रुढ़ि बन जाते हैं | हमारा संविधान रुढियों के प्रति आत्मीयता नहीं रखता |
राजनीति :- लोकतंत्र में विपक्ष का तिरस्कार संविधानिक खतरा होता है | धरा को क्षत्रीय विहीन करने की तर्ज वाली घोषणा जैसे कांग्रेस विहीन, भाजपा विहीन या सपा बासपा विहीन आदि लोकहास्य या मतदाता अपने मनोविनोद तक ही सिमित रखे तो यह परिपक्व लोकतंत्र की निशानी है | मतदाताओं में पार्टी हो जाने की बचकानी आदत है | वह चुनाव के दौरान अपनी चहेती राजनीतिक पार्टी का सदस्य बनकर व्यवहार करने लगता है | पार्टी के पिछले और ताजे घोषणा पत्रों को वह देखता तक नहीं , उसे न योजनाओं की समझ होती है ना उनके क्रियान्वयन की |
रोजगार – समृद्धि :- देश में जितने नौजवान तैयार हो रहे हैं उतने रोजगार नहीं हैं | देश में आय का अंतर गैर मामूली ढंग से बढ़ रहा है | अक्षम लाचारों की संख्या बढ़ रहीं है, गरीब कहना ठीक नहीं है ,चाहे सरकार जिस किसी दल की हो आंकड़े देकर बता सकती है कि गरीब कम हुए हैं , इन सब विरोधाभासों के विपरीत जी डी पी बढ़ रहा है |
कहानी यह बनती है कि नेहरू ने पूँजीवाद तथा साम्यवाद अर्थात खुली अर्थ व्यवस्था और सरकार नियंत्रित अर्थ व्यवस्था का एक मिक्स्ड मॉडल दिया | सरकारी उद्योगों जैसे रेलवे और केंद्र राज्य के संस्थानों ने नौकरियाँ दी , राष्ट्रीयकरण करके कुछ उद्योगों को सरकारी नियंत्रण में लाया गया दूसरी तरफ निजी उद्योग व्यवसाय एक नियंत्रण के तहत सरकार द्वारा प्रोत्साहित किये गए और नए रोजगार बनाने में उनकी भूमिका भी महत्वपूर्ण रही | | यह नियंत्रित अर्थ व्यवस्था का दौर था | निस्संदेह इस व्यवस्था में निर्मित रोजगारों में सेवा निवृत्ति के बाद कर्मचारी को निश्चिन्तता देकर सरकार ने संविधान को व्यावहारिक आकार दिया |
इस नियंत्रित अर्थ व्यवस्था को खोला गया राजीव गांधी द्वारा मनमोहन सिंह की चाबी से | अर्थ व्यवस्था खुली, पर्याप्त रोजगार भी बने(इन रोजगारों में सुरक्षा सरकारी जिम्मेदारी नहीं है) और वैभव भी आया | आज वाहन , घर के साथ रहन सहन के स्तर में मशीनों के साथ तरक्की, इसी व्यवस्था की देन है |
आज की सरकार के पास यही मॉडल है |
“स्वदेशी” की गूँज है, स्वदेशी का अनुपम उदाहरण चीन है | अपने उत्पादों से खुद तो खुद दूसरे देशों को भी पाट दिया | स्वदेशी वाली नारेबाजी नहीं है | हमारे स्वदेशी में विदेशों में बिकने की जिद और योग्यता नहीं समझ में आती | हमारा स्वदेशी अपनी गली का शेर दिखता है | यदि स्वदेशी किसी किस्म की पाबंदी है तो घुमा फिरा कर नेहरू मॉडल ना बन जाए (यह पंक्ति बौद्धिक व्यंग है ) |
विकास का यह मॉडल कांग्रेस का है जिस पर कांग्रेस रुक गयी थी, पर इस मॉडल पर प्रधान मंत्री की दौड़ धूप , तथा उत्पादन कारोबार की तरफ निर्णायक ढंग से देखना उम्मीद जगाता है कि रोजगार के साथ समृद्धि आ सकती है जिससे संविधान सवाल के दायरे में खड़ा नहीं दिखेगा |
सभी को गणतंत्र दिवस की शुभ कामनाएं |
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