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हाँ और ना उर्फ़ तलवार और ढाल
तलवार और ढाल की तरह “हाँ तथा ना” का इस्तेमाल एक प्रकार से चालाकी एवं मक्कारी के कुशल प्रबंधन (स्किल्ड मैनेजमेंट) की विशेष योग्यता है | इन दिनों भारत वर्ष की परिस्थिति और पर्यावरण इस कला में पारंगत होने के लिए सर्वथा अनुकूल है |
ये दोनों “हाँ तथा ना” भाषा बोली की जुड़वा संतान हैं | इन दोनों में “मानने’ से लेकर “ठानने” का भाव है जो “टिके” रहने की शक्ति की अपेक्षा रखता है |
इन दोनों की बनावट और बुनावट में कुछ भी डरावना नहीं है | इनके निहितार्थ से एकमन , इकदिल या एकमत होने पर मन में अपने आप ठहराव, धीरज, शान्ति भीतर प्रकट हो जाते हैं |
आजकल इनसे कतराना हमारे आपके बर्ताव का मुख्य हिस्सा बनता जा रहा है | डर इस बात का है कि अगर यह हमारे स्वभाव में भी शामिल हो गया तो मनुष्य तथा मनुष्यता के इतिहास का शर्मसार करने वाला अध्याय बन जाएगा |
मेरी उम्र की स्मृतियों तथा अनुभवों से अर्जित सोच यह कहती है कि “हाँ और ना” से हमारे विचलन अर्थात बिचकने का कारण इनके निहितार्थ या मूल अर्थ में नहीं बल्कि इन पर हमारे आरोपित अर्थात लादे गए अर्थों में है |
क्यों लद गए ये मायावी अर्थ ? इसका विश्लेषण कहता है कि हमारी चिंताओं, आतुरताओं(जल्दबाजियों), स्पर्धाओं, कमतरताओं, श्रेष्ठ होने के छद्म (नकली) अहसासों ने इस “हाँ और ना” की जोड़ी पर लाद दिए मनमाने पर्याय –
दृश्य पहला
यह पहली पड़ताल है जहां सामनेवाले के सवाल पर हमको उत्तर “हाँ या ना” में देना है :-
हाँ यानि अनुसरण (पीछे चलना)
और
ना यानि विद्रोह
हाँ यानि सराहना
और
ना यानि निंदा/भर्त्सना
हाँ यानि खुश करना
और
ना यानि दुखी करना
हाँ यानि खुशामद करना
और
ना यानि अकड दिखाना
हाँ यानि अपनी श्रेष्ठता खंडित करना
और
ना यानि अपनी हीनता मंडित करना
इन अर्थों के कारण “हाँ और ना” ऐसे पैने औजार महसूस होते हैं , जिनसे हमारा घायल होना पक्का लगने लगता है | हम आशंकित हो जाते हैं कि हमारे “हाँ और ना” हमें अपनी ही वचनबद्धता, प्रतिबद्धता, जवाबदेही तथा दायित्वों के घेरे में नज़रबंद कर लेंगें और ये नज़रें हमारी अपनी ही होंगीं |
बेशक यह एक पक्षीय पड़ताल है | सामने वाले को हमारी “हाँ और ना” की जरूरत है, वह इसी उम्मीद से हमें ताक रहा है | हमारी सारी युक्तियाँ , सारे बहाने नित नई छवियाँ गढ़ रही हैं, हम “हाँ और ना” से बच रहे हैं, बचने में सफल होने पर इसे ही सफलता पूर्वक जीने की शैली का एक भाग मान रहे हैं |
दृश्य दूसरा
पिछले दृश्य में हमारे “हाँ और ना” की अपेक्षा सामनेवाले को थी, परन्तु किसी अपरिहार्य मौके पर “हाँ और ना” की आवश्यकता सामनेवाले से अब हमें है |
“हाँ और ना” पर अब हमारे भयग्रस्त सरोकारों से लादे गए अर्थों की दिलचस्प बानगी ऐसे बनती है :-
“हाँ” यानि सहयोग
और
“ना” यानि दगाबाजी
“हाँ” यानि समर्थन
और
“ना” यानि विरोध
“हाँ” यानि कृतज्ञ
और
“ना” यानी कृतघ्न
“हाँ” यानि दयालु
और
“ना” यानि निर्दयी
इस प्रकार अब हमारी मान्यता हो जाती है कि सामने वाले की “हाँ और ना” हमारे हक की परिधि में नियत होती है | हमारे उम्मीद के प्रतिकूल उसकी हरक़त सीधे हमारे अधिकार को चुनौती महसूस होती है |
हमारी गलबहियां, चिरौरियाँ, खुशामदी विनतियाँ, धमकियां तथा दुराग्रही संवाद नए बिम्बों और नए रूपकों में प्रकट होते हैं, जो मूलत: आक्रमण के भेष में हमारे बचाव एवं पलायन के उपक्रम होते हैं |
सफलतापूर्वक जीने का इसे भी एक नुस्खा माना जा रहा है | हमारे अवचेतन पर इस वैचारिक धूर्तता का कब्ज़ा खतरे की सीमा तक जाता है पर इसे सफलतापूर्वक जीने की विधि का चतुर सुजान वाला दर्जा हम दे देते हैं |
दृश्य तीसरा
अब अपनी शुतुरमुर्गीय चालाकी छोड़कर खुद को खुदगर्जी से ऊपर उठाकर खुद को संसार से जोड़ते हैं और एक ईमानदार जायजा लेते हैं कि वे सारे प्रश्न जिनके प्रत्युत्तर में कभी हमें सामनेवाले से या कभी सामनेवाले को हमसे या व्यवस्था को हमसे या हमसे व्यवस्था को “हाँ और ना” की जरूरत पड़ती है तब आपस में सबकी क्या रिश्तेदारी होनी चाहिए ?
तो पाठकों, इस चिंता और चिंतन में शामिल मेरे परिचित तथा अपरिचित संगी साथियों इन सवालों से अपना सगापन उजागर कीजिये और भूल जाईये इन प्रश्नों की किसके तरफ पीठ है और किसके तरफ चेहरा ? “हाँ और ना” के परिस्थितिजन्य अर्थों को धकेलकर पीछे किसी भी शर्त के पार इन “हाँ और ना” के इन अर्थों को अपने विचार एवं अनुभूति में थाम लीजिये :-
“हाँ” यानि निश्चय
और
“ना” यानि निश्चय
“हाँ” यानि ठहराव
और
“ना” यानि ठहराव
“हाँ” यानि विश्वास
और
“ना” यानि विश्वास
“हाँ” यानि सक्रियता
और
“ना” यानि सक्रियता
“हाँ” यानि बेचैनी का अंत
और
“ना” यानि बेचैनी का अंत
“हाँ” यानि असंशय
और
“ना” यानि असंशय
“हाँ” यानि दिशाबोध
और
“ना” यानि दिशाबोध
“हाँ” यानि ना
और
“ना” यानि ना
“हाँ” यानि हाँ
और
“ना” यानि हाँ
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