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सौंदर्य की गहराई में डुबकी

सुनो दोस्तों
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सिर पैर की ?
दैनिक भास्कर 16 जुलाई 2016, खबर है लन्दन में वैज्ञानिकों ने दुनिया की सबसे सुन्दर महिला का चेहरा बना लिया है | “साइंटिफिक फेसियल मैपिंग टेस्ट” से बना यह कम्प्युटराइज्ड चेहरा सौन्दर्य के “ग्रीक गोल्डन रेशियो(जी जी आर)” पर आधारित है | यह प्रयोग सर्जन डॉ. जूलियन डी सिल्वा ने ख़ास कर ख़ूबसूरत मॉडल एम्बर हर्ड को ध्यान में रखकर किया क्यों कि एम्बर का फेस “ग्रीक गोल्डन रेशियो” के 91.85 % करीब है | ग्रीक संतों के अनुसार “ग्रीक गोल्डन रेशियो” चेहरे के फिजिकल परफेक्शन का दी बेस्ट मानक है | उनकी यह खोज प्रकृति में मौजूद है |यह रेशियो गणितीय पैमाने ‘फाई’ को माना जाता है |‘फाई’ रेशियो का मान 1.618 होता है | दरअसल यह मानक जॉमेट्री(रेखा गणित या ज्यामिति) की पैदावार जरूर है लेकिन इसका प्रचुर इस्तेमाल ऐस्थेटिक्स(सौन्दर्य शास्त्र) और कला(आर्ट) में जमकर हुआ है | ग्रीक चित्रकारी में स्त्री पुरुष, फूल पत्ते तथा प्रकृति की आँखों को बाँध लेने वाली मोहिनी (चार्म) में इस “ग्रीक गोल्डन रेशियो” की निर्णयकारी असंदिग्ध भूमिका है |
अभी इम्प्लोयी मैनेजमेंट में इ क्यू और आई क्यू की खासी मदद ली जा रही है | इ क्यू (इमोशन कोशेंट) तथा आई क्यू (इंटेलिजेंस कोशेंट) 80:20 का अनुपात किसी ऑफिस के सद्भावनापूर्ण माहौल और सफल टारगेट प्राप्ति के लिए उपयुक्त माना जाता है | इ क्यू (इमोशन कोशेंट) टेस्ट है कि आप अपने पीयर्स (साथियों) तथा सीनियर्स से कितने सौहार्द्र तथा सौजन्य के साथ बर्ताव करते हैं | आई क्यू (इंटेलिजेंस कोशेंट) यह टेस्ट तय करता है कि बन्दे में टारगेट हासिल करने की कितनी योग्यता है | इ क्यू (इमोशन कोशेंट) यह व्यक्ति के बर्ताव में सौहार्द्र व सौजन्य का आकलन करता है | आई क्यू (इंटेलिजेंस कोशेंट) यह कार्य निष्पादन के लिए यह व्यक्ति की मेधा (प्रज्ञा,बुद्धि)(इन्टलेक्ट) की उपयुक्तता की जांच करता है |
हमें अच्छी तरह मालूम है, किन चीजों को नापा जा सकता है | हम यह भी मानते हैं कि आदर्श यथार्थ, सोच विचार, चिंतन मनन, सुन्दर असुंदर, पसंद नापसंद, सुख दुःख, पीड़ा आनंद, आदि की कोई नाप जोख संभव नहीं है |
परन्तु क्या ऐसा नहीं लगता कि जी जी आर और इ क्यू-आई क्यू जैसे पॉवरफुल स्ट्रोक हमारी आपकी समझ की गेंद को कूट कूट कर हमारे दिमाग की बाउंड्री के बाहर भगा रहे है | आदर्श तथा सौन्दर्य की धारणाओं को हम उनके अशरीरी होने की वजह से सिर्फ “कल्पना” के संदूक में बंद रत्नों की तरह मानते हैं |
दरअसल ‘आदर्श’ के विचार को महज एक ऐसा काल्पनिक पैमाना समझा जाता है जो अनुमान लगाने के लिए उपयोगी है पर जिसकी रियल मौजूदगी नहीं होती | आदर्श तथा व्यवहारिक विरुद्ध अर्थी हैं | आदर्श का अभ्यास कठिन है |
‘सौन्दर्य’ की अवधारणा पर भी बहुत कुहासा है | ‘सौन्दर्य’ का देसी अंदाज तो बहुत निराला है, हमारा वेद वाक्य (गॉस्पेल ट्रुथ) है, इस कोण से देखेंगें अभी तो बात कहीं और जाने का अंदेसा है | सामान्य तौर पर लौकिक (वर्ल्डली) भाव से देखें तो कन्फ्यूजन है कि सौन्दर्य दृश्य में है अथवा दृष्टा की दृष्टि में ! कुरूपता कोई विपर्यय (उलट पलट या भूल चूक) तो नहीं है ?
ये गणितीय बखान {व्याख्याएं} हमें पुचकार रही हैं, भाई इम्प्रूव करो अपने आईडिया को ईडियोलोजी को | ये ब्यूटी ये आईडियल सिर्फ दिमागी खलल नहीं है, न ही कोई केमिकल लोचा | न ही इमेजिनरी इमेजेज (कालपनिक छवियाँ), न ही मिथ्या गल्प (फिक्शन) | ये प्रयोग ‘खयाली पुलाव’ को किचन में पकाने की रेसीपी की तरह है जो खामोखयाली को झुठलाते (बीलाय करते) हैं कि पुलाव खयाली नहीं है |
इस भरम इस भ्रान्ति को समझने के लिए मैं व्यक्तिगत रूप से ‘पाई’ का सहारा लेता हूँ | ‘पाई’ का मान 3.1415 होता है | यह परिधि और व्यास का अनुपात है | हरेक का अपना अपना डायमीटर (व्यास) है, चाहे दुनिया को रंगने वाला (प्रभावित करने वाला) या दुनिया से रंगाने वाला (प्रभावित होने वाला) | व्यक्ति के व्यास की मोडस ऑपरँडी (कार्य प्रणाली) में केंद्र से शुरुआत है, जैसे मैं सप्रयास सहमत हुआ तो केंद्र से एक दिशा में ग्लाईड (सरकना) हुआ, ठीक उसी समय ठीक विपरीत दिशा में भी मैं ग्लाईड हुआ(बिना प्रयास) एक असहमति को रिवील (प्रकट) करता हुआ | ऐसे ही इसका उल्टा भी होता है यानी सप्रयास असहमति और बिना प्रयास सहमति वह भी साइमलटेनिअसली (एक साथ) |
आदर्श प्रेम, आदर्श मित्रता, आदर्श नेता, आदर्श खिलाड़ी, आदि आदि इसमें जुडा हुआ सफिक्स (उपसर्ग)‘आदर्श’ साफ़ साफ़ दिखता है पर अनंत, परम, शून्य, बिंदु में यही ‘आदर्श’ छिपा हुआ है | आदर्श का यह विचार, इसकी अवधारणा (आईडिया), परिकल्पना (हायपोथिसिस) है क्या?कोरी कल्पना अथवा थोथा अनुमान ?
मोटे तौर पर आदर्श किसी गतिविधि या गुण की वह चरम ऊँचाई लगती है, जो एक उदहारण, नज़ीर या नमूना बन जाती है, जिसे हासिल करने में व्यक्ति का ‘उदात्त’ (सबलाईम) प्रकट होता है |
साथ ही आदर्श को लेकर कुछ मान्यताएं हैं,जिन्हों ने हम में से कईयों को प्रभावित कर रखा है, जैसे-
१.विज्ञान के क्षेत्र में आदर्श अमूर्त होते हुए भी हकीकत(वास्तविकता) माना जाता है, जबकि एथिक्स (नैतिक दर्शन) में आदर्श को अमूर्त के साथ सिर्फ फंतासी (फेंटेसी) या मात्र कल्पना समझा जाता है |
२.कोई भी आदर्श व्यक्ति के वर्त्तमान से सदा गैर हाजिर होता है,उसका अस्तित्व वर्तमान में होता ही नहीं | उसकी उपस्थिति को वर्तमान में लाने के लिए व्यक्ति संघर्षरत रहता है |
३.आदर्श की कल्पना के लिए हम फ्री है, कुछ भी सोच सकते हैं, जो जितना जीनियस (प्रतिभावान) होगा उतनी असाधारण, अपूर्व, निराली कल्पना करेगा |
“एथिक्स (नैतिक दर्शन) में आदर्श को अमूर्त के साथ सिर्फ फंतासी (फेंटेसी) या मात्र कल्पना समझा जाता है” इस विचार से मेरा तालमेल नहीं बैठता |
दरअसल मनुष्य के बूते की बात ही नहीं कि उन चीजों की कल्पना करें जो अस्तित्व में न हो या जिनका उसने या किसी अन्य मनुष्य ने अनुभव ना किया हो | जैसे कोई कल्पना करे कि जीभ हथेली पर ऊग जाए, यहाँ वह जीभ और हथेली दोनों से परिचित है | कल्पना सिर्फ पोजिशनिंग (स्थिति निर्धारण) की प्रक्रिया में की गयी है | यह पोजिशनिंग व्यक्ति का व्यास है जो उसकी स्वाभाविक तथा अर्जित प्रतिभा है | एक साथ केंद्र के दोनों ओर की 180 डिग्री पर सरकन है | रूप (फॉर्म) और अंतर्वस्तु (कंटेंट) पर उसकी सोच का संतुलन है | परिधि पर जीभ है हथेली है | न भूलें कि परिधि तथा व्यास का सम्बन्ध 3.14 का ही रहेगा | आशय यह कि हमारी आपकी कल्पना या खुली या बंद पलकों के सपनों की भी एक लिमिट एक हद है, चाहे कोई जीनियस(प्रतिभावान) हो या अवतार(इनकारनेशन) | दूसरी बात आदर्श वर्तमान से ओझल रह सकता है पर अनुपस्थित नहीं | हमें उसकी दिशा में घूमना होता है | आदर्श के साथ होने या जाने (गो अलॉन्ग करने) में जब अपनी कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलना पड़ता है तब संघर्ष की फील होती है, यह व्यवस्था से जुडी बात भी है | तीसरी ख़ास बात है “आदर्श को एथिक्स में फंतासी समझना”—आदर्श को निरी कल्पना समझना सही नहीं है, वस्तुत: आदर्श एक अनुभूत (हाई-स्ट्रँग ) असलियत है | जैसे- संतान का जन्म, गर्भाशय में हमारा अनुभव, गीत में खो जाना, राग आसावरी से उदास (मेलनकोलिक) हो जाना, राम-राज्य | ये सब दशा-स्थिति (स्टेट-सिचुएशन) हैं, बस इनका दोहराव कठिन है असंभव नहीं | इनसे उत्पन्न (ओरिजिनेटेड) यथार्थ (फेक्ट) ही आदर्श हैं |
आमतौर पर किसी देह, वस्तु, स्थान, विचार की ऐसी खासियत जो आपको आनंद, प्रसन्नता, मुग्धता प्रदान करती है, सौन्दर्य हुस्न खूबसूरती की हैसियत से हमारे शब्दों के खजाने में दर्ज है | हर जाति (रेस), सभ्यता(सिविलाईजेशन) और संस्कृति(कल्चर) के अपने अपने सौन्दर्य शास्त्र(ऐस्थेटिक्स) होते हैं | अगर हम सुन्दरता पर आम राय में शामिल होना चाहते हैं तो सुघड़ता, सौष्टव, अभिराम, सौम्यता, मुग्धता और शोभा, श्री से भी गुजरते हैं | फिर एक बुनियादी सवाल आता है देखे जाने वाली कुदरती या गढ़ी हुई सर्जना (क्रियेशन) में सौन्दर्य है अथवा दर्शक(दृष्टा)(सीअर या लुकर) में |
कोई भी सर्जना अपने रूप के लिए अपनी सामग्री पर निर्भर होती है, उसकी सामग्री में और उसके रूप दोनों में ही कई जोड़ होते हैं | इस सामग्री और उसके जोड़ों की सुव्यवस्था (ऑर्डरलीनेस) उस दृश्य (मंजर) में एक समूचापन(वननेस) तथा समरसता(हारमनी) पैदा करते हैं, जिसका मुकम्मल असर एक मोहिनी या चित्ताकर्षता (थ्रेल) के रूप में सामने आता है | यदि दर्शक(बीहोल्डर) की अपनी सभ्यता तथा संस्कृति के कारण विकसित रूचि उस मोहिनी को आत्मसात (एसिमिलेट) कर पाती है तो दृश्य और दृष्टा में जुड़ाव (यूनियन) हो जाता है |
“किसी देह, वस्तु, स्थान, विचार की ऐसी खासियत जो आपको आनंद, प्रसन्नता, मुग्धता प्रदान करती है” इस धारणा में मुझे “विस्मय (एस्टोनिश)” जोड़ना बहुत बहुत जरूरी लगता है | अचम्भे में पड़ गए तो ऑबजेक्ट की ओर से बीहोल्डर तक बात पूरी पहुँच गई | काश ! दृष्टा अब इतना व्याकुल(ओवर व्हेल्म्ड) हो जाए कि यह सर्जना, इसमें अन्तर्निहित(इनहिरेंट) सामग्री, इसका रूप आकार और इसके जोड़ों पर कोई आंच ना आये, सब जस का तस सब निरापद(सिक्योर्ड) रहे, यदि यह प्रार्थना(विश) जाग गई तो समझो खूबसूरती हुस्न चला और अपनी मंज़िल(डेस्टिनेशन) तक सही सलामत पहुँच गया | ”सत्यं, शिवं, सुन्दरम् ” का सुन्दरम् ‘यही’ है | कुरूपता से आतंक तक का विश्लेषण इसके बिना कठिन है |
यहाँ भी वो ही बात है कि ‘सौन्दर्य’ कल्पना की उड़ान नहीं है, इसमें भी व्यक्ति के डायमीटर और सर्कम्फरेंस तथा इनके अनुपात ‘पाई अर्थात 3.14’ की प्रभुता(लॉर्डशीप) वैसी ही है है जैसे आदर्श के मामले में रही है | यह भी एक भोगा हुआ यथार्थ होता है |
सौन्दर्य के सन्दर्भ में “ग्रीक गोल्डन रेशिओ” बेमतलब(मीनिंगलेस) बेहूदा(इनएन या गागा) नहीं है, जाहिर है खूबसूरती को महसूस करने में दिमाग में एक अनुपात स्वाभाविक तौर पर काम करता ही है |
अभी एक और विचार ‘स्प्रीच्युअल कोशेंट’ पर लगातार खोजपूर्ण प्रयोग तथा परीक्षण चल रहे हैं | इसका उद्देश्य मानव (ह्युमनबींग) के आचरण(कंडक्ट) और भलमनसाहत या नेकदिली(गुड नेचर) को गणना की परिधि में लाना है | कुछ नतीजे भी हैं, जैसे—१.कर्म (डीड्स) को अहम् से भाग दिया जाए तो भजनफल ‘स्प्रीच्युअल कोशेंट’ होगा | यानी अहम्(इगो) यदि शून्य है तो स्प्रिच्युअल कोशेंट अनंत होगा | यह गणना यह सिद्ध करती है कि इगो कभी शून्य नहीं हो सकता | २. इमोशनल कोशेंट और इंटेलिजेंस कोशेंटका योग स्प्रीच्युअल कोशेंट के बराबर होता है | यानी भावनाएं तथा मेधा का योग आचरण है |
गणित जीवन में न होता तो मनुष्य के पास सिर्फ स्वभाव होता तमीज नहीं |
बहुभिर्प्रलापै: किम्, त्रयलोके सचराचरे |
यद् किँचिद् वस्तु तत्सर्वम्, गणितेन् बिना न हि ||
(महावीराचार्य, जैन गणितज्ञ )
बहुत प्रलाप करने से क्या लाभ है ? इस चराचर जगत में जो कोई भी वस्तु है वह गणित के बिना नहीं है |
आगे और मिलते हैं |

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